नक्सलियों ने 34 लोगों की हत्या कर दी पर लोग डरे नहीं, शिक्षा काे हथियार बनाया

बस्तर का नाम सुनते ही नक्सली दहशत की तस्वीरें याद आने लगती हैं। इसी दहशत के बीच बसा है सुकमा जिले का गांव- एर्राबोर। करीब पांच हजार की आबादी वाले गांव को सरकारी अफसरों के गांव के नाम से जाना जाता है। वजह यह है कि यहां के सभी 700 परिवारों में लगभग एक सदस्य सरकारी नौकरी में जरूर है। गांव में 480 लोग सरकारी नौकरी में हैं। उन्हें इस पहचान पर गर्व है, क्योंकि सिर्फ 15 साल में उसने खुद को राख से खड़ा कर लिया है। 2006 में गांव पर नक्सलियों ने हमला कर 34 लोगों की हत्या कर दी थी। पूरे गांव को जला दिया था।


चिमनी की रोशनी में बच्चों ने पढ़ाई की


गांव के उपसरपंच सोयम भद्रा बताते हैं कि तब मैं 24 साल का था। यहां सुविधाओं के नाम पर कुछ भी नहीं था। सिर्फ हम थे, वो भी अनपढ़। वह मुश्किल समय था, लेकिन हमले के बाद गांव वालों ने संकल्प लिया कि अब नक्सलियों से डरना नहीं है, क्योंकि खोने के लिए कुछ भी नहीं बचा था। गांव ने शिक्षा को नक्सलियों से लड़ने का हथियार बना लिया। चिमनी की रोशनी में बच्चों ने पढ़ाई की। गांव के आदर्श बने-सोयम सुनकू। सुनकू के पिता सोयम लच्छा गांव के सरपंच थे। नक्सलियों ने उनकी हत्या 2005 में कर दी थी, लेकिन सुनकू ने बीएससी पूरी की और फिर आर्डिनेंस फैक्ट्री सर्विस में उनका चयन हुआ। आज सुनकू केंद्रीय रक्षा मंत्रालय में डिप्टी डायरेक्टर के पद पर हैं।


युवाओं को रोजगार के अवसर भी उपलब्ध कराए गए


सुकमा एसपी शलभ सिन्हा बताते हैं कि एर्राबाेर में पहले सड़क बनाई गई। पढ़ने-लिखने के लिए तो बच्चे तैयार थे ही, उन्हें रोजगार के अवसर भी उपलब्ध कराए गए। 15 साल की मेहनत का नतीजा है कि आज हर घर में सरकारी नौकरी वाले लोग हैं। साढ़े तीन सौ से ज्यादा लोग पुलिस की नौकरी में हैं। इसके अलावा लोग शिक्षा, डाक, बिजली और पंचायत विभाग में भी पदस्थ हैं। नई पीढ़ी मेडिकल और इंजीनियरिंग तक की पढ़ाई कर रही है। 


बैंक, अस्पताल तक की सुविधा, सबके पास इंटरनेट


गांव की महिला सिपाही संगीता ने बताया कि 15 साल पहले गांव अंधेरे में डूबा था, स्कूल-अस्पताल नहीं थे। लोग झोपड़ियों में रहते थे। आज पक्के मकान,अस्पताल, स्कूल, बैंक हैं। सभी के पास इंटरनेट सुविधा है। गांवों की युवतियां मोपेड-स्कूटर चला रही हैं। इतने पिछड़े इलाके में किसी ने इतनी जल्दी बदलाव की कल्पना नहीं की थी।